उत्तराखंड राज्य निर्माण को 17 साल पूरे हो गये है,लेकिन आज भी उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के शहीदों के सपनो का उत्तराखंड नहीं बन पाया है। सही मायने में सरकार जो भी हो जिसकी भी हो, उसे यह बात समझनी होगी कि, शहीदों के सपनो के अनुरूप राज्य का विकास करना ही शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। और शहीदों के इन सपनो को साकार करने के लिए सूबे के सभी दलों को दलगत राजनीती से उपर उठकर कार्य करना होगा।

राज्य निर्माण की जल जंगल और जमीन की अवधारणा राज्य बनने के बाद से ही हवा हवाई है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं के साथ ही रोजगार के अवसरों की कमी अब भी मुंह बाएं खड़ी है। प्रदेश में पलायन की गति में और तेजी आई है, तो अस्पताल चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में बीमार होकर दम तोड़ रहे है। प्रदेश के नौजवान रोजगार के लिए इधर-उधर भटक रहे है तो शिक्षा के क्षेत्र में भी संतोषजनक उपलब्धि हासिल नही हो पायी है। अर्थात जिन मुद्दों को राज्यवासियों ने उत्तराखंड की लड़ाई लड़ी और नौजवानों,माताओं बहनों ने अपनी शहादतें दी है, वह अब तक की उत्तराखंड की सभी सरकारों की जुबान पर तो रहे, लेकिन प्राथमिकताओं में शुमार नहीं हो पाए।

आज एक बार फिर उत्तराखंड राज्य बनने के 17 साल पूरे होने पर प्रदेशभर में सरकारी स्तर पर अनेको कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है, सूबे की वर्तमान सरकार ने राज्य स्थापना दिवस समारोह की शुरुआत विजन के तहत पांच नवंबर को देहरादून में 'रैबार' कार्यक्रम से किया है, जिसमे पलायन, पर्यटन, पर्यावरण, इनोवेशन, इंडस्ट्री जैसे विषयों पर परिचर्चा कर उत्तराखंड के सर्वागीण विकास के लिए रोड मैप बनाने का प्रयास करने की बात त्रिवेंद्र सरकार ने की है। लेकिन सिर्फ कार्यक्रम आयोजित कर शहीदों के सपने पूरे होंगे, इस पर तब तक संयश बना रहेगा जब तक कि धरातल पर इन विषयों पर काम होता नही दिखेगा।

बहरहाल आज एक बार फिर से प्रदेश के नेतागण शहीद आंदोलनकारियों के सपनों जैसा उत्तराखंड बनाने का संकल्प दोहराएंगे। शहीदों के चित्रों पर पुष्प अर्पित कर श्रद्धांजलि दी जायेगी। होना भी चाहिए, लेकिन अहम सवाल यह है कि कैसे बन पाएगा शहीदों के सपनों का उत्तराखंड? अभी तक की हर सरकार में हमारे प्रतिनिधि अपनी अपनी महत्वकांक्षाओं के लिए लड़ते दिखाई दिए और इसी परिपाटी के कारण सूबे का विकास भी प्रभावित होता रहा है, इसलिए सवाल उठने भी लाजिमी है।

जिस उत्तराखंड को हासिल करने के लिए वर्ष 1994 की 1/2 अक्टूबर की काली रात उत्तराखंड के इतिहास में खून से लिखी गई। आज भी उस उत्तराखंड के सपने अधूरे ही हैं। सभी जानते हैं की कैसे उस दिन उत्तराखंड राज्य बनाने की मांग को लेकर दिल्ली जा रहे लोगों पर उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सपा सरकार ने मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर मानवता को शर्मशार करने वाली बर्बरतापूर्वक गोलियां दागीं। यही नहीं, जान बचाने के लिए खेतों की तरफ भागी महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़ किया गया। इससे पहले सितंबर में ऊधमसिंहनगर के खटीमा, देहरादून में मसूरी के झूलाघर के पास जुलूस-प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस और पीएसी ने गोलियां बरसाकर आंदोलन को कुचलने का प्रयास किया था। इसी का नतीजा रहा कि नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड अलग राज्य के रूप में वजूद में आ गया। इसके लिए रामपुर तिराहा, खटीमा, मसूरी, देहरादून, श्रीयंत्र टापू, कोटद्वार, नैनीताल आदि स्थानों पर 29 आंदोलनकारियों ने शहादत दी।


राज्य गठन के बाद से 17 सालों से सूबे का हर मुख्यमंत्री शहीदों के सपनों को साकार करने का संकल्प लेते आ रहे हैं, लेकिन वाकई में सरकारें ऐसा कर पाईं, यह सवाल उन्हें खुद से जरूर पूछना चाहिए। राज्य बना, अपनों की सरकार ने कामकाज संभाला, लेकिन शहीदों के सपनों के अनुरूप राज्य कैसे आगे बढे, इस पर शायद ही अभी तक किसी ने गंभीरता दिखाई। हाँ जुबानी खर्च में कभी कोई कमी नहीं दिखी। महिलाओं के पीठ का बोझ कम नहीं हुआ, गर्भवती महिलाओं की पीड़ा बरकरार है। राज्य की अवधारणा के मूल में यही सब मुद्दे थे। जो कि अब भी ज्यों के त्यों हैं।

देखना होगा कि राज्य की वर्तमान त्रिवेंद्र सरकार शहीदों के सपनो के अनुरूप आगे बढती है या फिर यह सरकार भी अब तक की सरकारों की भांति ही सिर्फ जुबानी संकल्प लेकर अपनी महत्वकांक्षाओं के इर्दगिर्द ही आगे बढ़ती है।
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