पटना, सनाउल हक़ चंचल
पटना । शादी के कुछ समय बाद पता चला कि पत्नी का किसी और से अवैध संबंध है। इस बात पर दोनों अलग-अलग रहने लगे। कुछ समय बाद पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पति ने उसे अपना मानने से इंकार कर दिया और तलाक के लिए कोर्ट में आवेदन दिया। इसके बाद डीएनए टेस्ट हुआ, जिसमें पत्नी के बेवफाई सामने आ गई। लेकिन जिला अदालत ने पति को तलाक देने से इंकार कर दिया।
आखिरकार यह मामला पटना हाईकोर्ट में आया, यहां जज ने अपने एक फैसले में कहा है कि डीएनए जांच में पत्नी की बेवफाई सिद्ध होने के बाद भी पति के पक्ष में तलाक का फैसला नहीं देना न्यायोचित नहीं है। इस टिप्पणी के साथ ही अदालत ने पत्नी के पक्ष में सुनाए गये गया जिला न्यायालय के फैसले को निरस्त करते हुए पति के तलाक की अर्जी पर अपनी मुहर लगा दी। न्यायाधीश मुंगेश्वर साहू की पीठ ने पति अशोक कुमार की याचिका पर सुनवाई की।
क्या है मामला.......
गया के रहने वाले अशोक कुमार ने गया के अपर न्यायाधीश 6 के एक फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। जिसमें उसने कहा था कि उसकी शादी 18 मई 1981 को हुई थी। शादी के बाद जानकारी मिली कि उसकी पत्नी का किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध है। इसके चलते वह 1982 के बाद से अपनी पत्नी से अलग रहने लगा। सात साल बाद 13 अप्रैल 1990 को उसकी पत्नी ने एक लड़के को जन्म दिया।
याचिकाकर्ता ने आगे बताया कि उसने तलाक के लिए गया की अदालत में अर्जी दाखिल की। इसके जवाब में पत्नी ने पति के आरोप को अनुचित ठहराते हुए कोर्ट से कहा कि उसका पति उसे दहेज के लिए प्रताडि़त करता था। उसका पति के साथ 1987 से 1989 तक संबंध रहा था। इसी दौरान वह गर्भवती हुई थी।
पत्नी के आरोप को निराधार बताते हुए पति ने डीएनए टेस्ट की अनुमति मांगी। जिसे निचली अदालत ने स्वीकार कर लिया। डीएनए टेस्ट मेें चौंकाने वाली रिपोर्ट आई। पति बायोलॉजिकल फादर नहीं पाए गये। लेकिन गया की अदालत ने इस रिपोर्ट के आधार पर पति को तलाक की अनुमति नहीं दी।
कोर्ट को कहना था कि 0.02 फीसद रिपोर्ट गलत भी पाई जाती है। इसके साथ ही पति की अर्जी को खारिज कर दी गई। जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी। इस पर हाईकोर्ट का कहना था कि डीएनए से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।
ऐसे फैसले का क्या मतलब
याचिकाकर्ता ने पत्नी से तलाक लेकर दूसरी शादी करने के लिए यह याचिका 1990 में गया की अदालत में दायर की थी। जिसे निचली अदालत ने 13 जुलाई 1998 को खारिज कर दिया। इसके बाद उसी साल निचली अदालत के फैसले को पटना हाईकोर्ट में फस्र्ट अपील 524/1998 के माध्यम से चुनौती दी। इसे सुलझाने में दोनों अदालतों ने 20 साल लगा दिया।
डीएनए टेस्ट पर क्या कहता सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में नंदलाल बासुदेव बनाम लता नंद लाल एवं दीपनबिता रॉय बनाम रोनोब्रतो रॉय के केस में कहा था कि जीवन साथी की बेवफाई साबित करने के लिए बच्चे का डीएनए जांच की इजाजत पति अथवा पति के विरोध के बावजूद दी जा सकती है। यदि ऐसी जांच का प्रतिरोध किया जाता है तो इसका प्रतिकूल मतलब विरोध करने वाले व्यक्ति के खिलाफ निकाला जा सकता है।
पटना । शादी के कुछ समय बाद पता चला कि पत्नी का किसी और से अवैध संबंध है। इस बात पर दोनों अलग-अलग रहने लगे। कुछ समय बाद पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। पति ने उसे अपना मानने से इंकार कर दिया और तलाक के लिए कोर्ट में आवेदन दिया। इसके बाद डीएनए टेस्ट हुआ, जिसमें पत्नी के बेवफाई सामने आ गई। लेकिन जिला अदालत ने पति को तलाक देने से इंकार कर दिया।
आखिरकार यह मामला पटना हाईकोर्ट में आया, यहां जज ने अपने एक फैसले में कहा है कि डीएनए जांच में पत्नी की बेवफाई सिद्ध होने के बाद भी पति के पक्ष में तलाक का फैसला नहीं देना न्यायोचित नहीं है। इस टिप्पणी के साथ ही अदालत ने पत्नी के पक्ष में सुनाए गये गया जिला न्यायालय के फैसले को निरस्त करते हुए पति के तलाक की अर्जी पर अपनी मुहर लगा दी। न्यायाधीश मुंगेश्वर साहू की पीठ ने पति अशोक कुमार की याचिका पर सुनवाई की।
क्या है मामला.......
गया के रहने वाले अशोक कुमार ने गया के अपर न्यायाधीश 6 के एक फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। जिसमें उसने कहा था कि उसकी शादी 18 मई 1981 को हुई थी। शादी के बाद जानकारी मिली कि उसकी पत्नी का किसी दूसरे मर्द के साथ संबंध है। इसके चलते वह 1982 के बाद से अपनी पत्नी से अलग रहने लगा। सात साल बाद 13 अप्रैल 1990 को उसकी पत्नी ने एक लड़के को जन्म दिया।
याचिकाकर्ता ने आगे बताया कि उसने तलाक के लिए गया की अदालत में अर्जी दाखिल की। इसके जवाब में पत्नी ने पति के आरोप को अनुचित ठहराते हुए कोर्ट से कहा कि उसका पति उसे दहेज के लिए प्रताडि़त करता था। उसका पति के साथ 1987 से 1989 तक संबंध रहा था। इसी दौरान वह गर्भवती हुई थी।
पत्नी के आरोप को निराधार बताते हुए पति ने डीएनए टेस्ट की अनुमति मांगी। जिसे निचली अदालत ने स्वीकार कर लिया। डीएनए टेस्ट मेें चौंकाने वाली रिपोर्ट आई। पति बायोलॉजिकल फादर नहीं पाए गये। लेकिन गया की अदालत ने इस रिपोर्ट के आधार पर पति को तलाक की अनुमति नहीं दी।
कोर्ट को कहना था कि 0.02 फीसद रिपोर्ट गलत भी पाई जाती है। इसके साथ ही पति की अर्जी को खारिज कर दी गई। जिसे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई थी। इस पर हाईकोर्ट का कहना था कि डीएनए से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है।
ऐसे फैसले का क्या मतलब
याचिकाकर्ता ने पत्नी से तलाक लेकर दूसरी शादी करने के लिए यह याचिका 1990 में गया की अदालत में दायर की थी। जिसे निचली अदालत ने 13 जुलाई 1998 को खारिज कर दिया। इसके बाद उसी साल निचली अदालत के फैसले को पटना हाईकोर्ट में फस्र्ट अपील 524/1998 के माध्यम से चुनौती दी। इसे सुलझाने में दोनों अदालतों ने 20 साल लगा दिया।
डीएनए टेस्ट पर क्या कहता सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में नंदलाल बासुदेव बनाम लता नंद लाल एवं दीपनबिता रॉय बनाम रोनोब्रतो रॉय के केस में कहा था कि जीवन साथी की बेवफाई साबित करने के लिए बच्चे का डीएनए जांच की इजाजत पति अथवा पति के विरोध के बावजूद दी जा सकती है। यदि ऐसी जांच का प्रतिरोध किया जाता है तो इसका प्रतिकूल मतलब विरोध करने वाले व्यक्ति के खिलाफ निकाला जा सकता है।
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